संतुष्टी धर्म है, क्यों शुरू में चीज़े अच्छी लगती है बाद में कम |

संतुष्टी या संतोष जरुरी है और धर्म भी है | आज के युग में लोग संतुष्टी को मरा हुआ मानते है, कहते है की जिसे संतोष हो गया वो आगे नहीं बढ़ सकता लेकिन ये गलत है, जब लोग संतोषी होते है तो अपना काम कर्त्तव्य रूप में करते है लेकिन जब असंतुस्ट रहते है तो चाहतवश करते है | 


जरुरत - यदि आप अपना कर्त्तव्य करते है जैसे अपने शरीर का पोषण, परिवार का पालन पोषण, समाज के प्रति अपने कर्तव्य का पालन, ये सभी जरूरते है |


चाहत - चाहते वो है जो आप किसी विशेष सम्मान की इच्छा पूरी करने के लिए कुछ चाहते है | 


जब भी आपने हमने कोई कार्य शुरू किया, या प्रेम किया, या भक्ति की, मित्रता की कुछ भी किया हो, शुरू में वह बहुत सुन्दर ताजगी देती है, मन में उमंग पैदा हो जाती है, लोगो से उस बात की चर्चा होती है लेकिन कुछ दिनों बाद वो कार्य बेकार लगता है उसकी ताजगी खत्म हो जाती है क्योकि कुछ दिनों बाद हम उससे कुछ चाहने लगते है और चाहतो के पूरा न होने से वो कार्य बेकार हो जाता है |


उदाहरण - आप किसी से या भगवान से प्रेम करना शुरू करते है तब तक ठीक रहता है जब तक आपकी चाहते कुछ न हो | जैसे ही चाहते बढ़ेंगी प्रेम से सारा उमंग चला जायेगा | जैसे पहली बार ध्यान करने पर बहुत सुख आता है और जब आप फिर उसी सुख को पाने के लिए ध्यान करते है तो वो आपको नहीं मिलता क्योंकि आप कुछ चाहने लगते है जिससे असंतोष जन्म ले लेता है, इसलिए जैसा मिले वैसा बिना चाहत किये स्वीकार करें, आनंद दुगना बढ़ेगा और आप इसको जितना समझेंगे उतना आनंद बढ़ता रहेगा 


असंतोष अधर्म का कारण भी है, ज्यादा पाने की इच्छा आपसे हमसे कई बार गलत कार्य करवाती है |




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